रेस्त्रां में दोपहर’ और ‘हल्के रंग की कमीज’ जैसे कहानी-संग्रह और ‘राग केदार’ और ‘क्या
पता कामरेड मोहन’ जैसे उपन्यास लिखने के बावजूद, कथाकार संतोष चौबे को वास्तव में कवि होने
का गर्व है। यह बात उन पाठकों के लिए नई नहीं हो सकती जिन्होंने करीब बीस साल पहले उनका
पहला कविता संग्रह 'कहीं और सच होंगे सपने' पढ़ा था। उनकी कविताएँ अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित होती हैं और उनका गद्य भी काव्यात्मक संवेदना के साथ संयुक्त है। इसलिए, यह सत्य
है कि लंबे अंतराल के बाद भी, संतोष चौबे की कविता कभी भी अलग नहीं रही है।
वे अपने काव्य के माध्यम से मानवता के मूल्यों को संजीवन करने का प्रयास करते हैं। उनकी
कविताएँ सामान्य चीजों में छुपे खुशियों को बचाने के लिए प्रयासरत हैं, जैसे किसी अच्छी
किताब को बारिश में पढ़ना या छत पर सोते हुए सुनहरे सपने देखना। वे अपने परंपरागत मूल्यों
को बचाए रखने के लिए हर संभाव में कविता के माध्यम से संवाद करना चाहते हैं।"
उनकी कविताएँ उन सब मामूली चीजों को बचाए रखने की कोशिश करती हैं जो मनुष्य को मनुष्य बनाती
हैं। वे लगातार होती बारिश में किसी अच्छी-सी पुस्तक को पढ़ने या छत पर सोते हुए कोई अच्छा
सा सपना देखने से मिलने वाली ख़ुशी को बचाए रखना चाहते हैं। वे अम्मा के उस रेडियो को
सुरक्षित रखना चाहते हैं जो उन सैकड़ों टीवी चैनलों को चुनौती देता है जिनके दिन-रात
प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों से एक बार भी अम्मा की दुलारभरी आवाज सुनाई नहीं देती।
प्यार संतोष चौबे की कमजोरी है। इसे पाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। संग्रह की पहली ही
कविता प्यार की उनकी परिकल्पना को अद्भुत रूप से प्रस्तुत करती है। ‘आना/जब धन बहुत न हो/पर
हो/हो यानी इतना/कि बारिश में भीगते/ठहर कर कहीं/ पी सकें/एक प्याला गर्म चाय/कि ठंड की
दोपहर में/निकल सकें दूर तक/और जेबों में भर सकें। मूंगफलियाँ। ‘छोटी-छोटी चीजों में परम
सुख तलाशने वाली उनकी कविताएँ जब आधुनिक विकास के विद्रुपों से रूबरू होती हैं तो मिलमिला
देने वाली व्यंग्यात्मकता को इस्तेमाल करने में भी नहीं हिचकिचाती। ‘मेरे अच्छे
आदिवासियों/विस्थापित हो जाओ/ताकि हम स्थापित हो सकें/पर देखो/दे देना पता अपना/क्योंकि
बुलाएँगे हम तुम्हें/कभी कभी/नाचने/अपने राष्ट्रीय पर्व पर।’ पहले हम तुम्हें तुम्हारे
जीवनयापन के साधनों-जल, जंगल, जमीन से बेदखल करेंगे और फिर तुम्हें अपनी संस्कृति का
रंग-बिरंगापन दिखलाने के लिए शोकेस में सजाकर रखेंगे। ‘बैठक बाज’ में उस व्यक्ति का
कैरीकेचर है जो दुनिया बदलने की चेष्टा में निरंतर स्वयं को बदलता रहता है।
नई अर्थव्यवस्था ने सारी परिवर्तनकामी क्रांतिकारी युवाशक्ति को स्वयंसेवी संस्थाओं में
नियोजित कर पथभ्रष्ट कर दिया है। इसका कटु किंतु तथ्यात्मक विवरण ‘कभी तो खत्म होगी
परियोजना’ पढ़कर पाया जा सकता है। यह कविता अपनी शुरूआत ही इन्कलाबी तेवरों की परत उधेड़ने
से करती है- ‘क्रांति के स्वप्न को घेर लेंगी/परियोजनाएँ/और समय से टकराने की जबरदस्त
ताकत/बदल जाएगी/किसी काले जादू के प्रभाव से/अपने को सुरक्षित/और सुरक्षित बनाने की कोशिश
के रूप में।’ लोगों के सामने परियोजना समव्यक उनके हकों के लिए लड़ते दिखाई देंगे लेकिन
सरकार के सामने घिघियाते नजर आएँगे। नई-नई परियोजनाओं से धन प्राप्त करने के लिए वे नए-नए
तर्क गढ़ते रहेंगे और उनके समर्थन के लिए नित नए बुद्धिजीवी एवं विशेषज्ञ पैदा करते रहेंगे।
इनका काम किसी कमी को पूरा करना, किसी समस्या का समाधान करना नहीं बल्कि सब कुछ इसी तरह
चलते रहने देना होगा क्योंकि तभी इनकी क्रांति एक ही जगह घूमने के बावजूद आगे बढ़ने का भ्रम
पैदा करती रहेगी।
संतोष चौबे की ये कविताएँ एक ओर जहाँ मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए आवश्यक मूल्यों को
बचाए रखने की जद्दोजहद करती दिखाई देती हैं वहीं दूसरी ओर विकास के नाम पर होने वाले
उत्पीड़न का विरोध और इससे फायदा उठाने वाले लोकोपकारकों के बनावटी नकाब उतारती प्रकट होती
हैं। अपने समय को समझने के लिए इन्हें बार-बार पढ़ा जाना चाहिए।
सुरेश पंडित